О современной литературной критике в Индии

CC BY f
20-27
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Девендр, Ч. (2020). О современной литературной критике в Индии. Восточный факел, 3(3), 20–27. извлечено от https://inlibrary.uz/index.php/eastern-torch/article/view/14901
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Аннотация

В  статье  сделана  попытка  сравнителное  изучение  мнений  разных  литературоведов-критиков  о  сегодняшней  Индии  и  определены  имена  тех,  кто  объективно  оценил сегодняшнюю эпоху.  В  статьи,  высказаны  мнения  о  появлении  новых  имен,  новых  сюжетов  и  образов  в  литературном  процессе  данного  периода.    В  частности,  говорится  о  деятельности  таких  известных личностей  Индии  как  Махатма  Ганди,  Амбедкар,  Бхагат  Синх,  Рамасвами  и  других,  которые  в корне  изменили,  обновили  представление  индийского  народа  о  жизни.    В  статье  приводятся взгляды  таких  видных  литературоведов  как  Намвар  Синх,  Вишванатх  Трипатхи,  Менеджер Пандей, Шивкумар Мишра, Раджендра Ядав и других к этим изменениям и показал нвые страницы литературоведения ХХ века.  Автор  через  изучение  взглядов  литературоведов  критиков  дает  понять  о  том,  что  из  себя представляет сегодняшняя Индия и его литература.


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S H A R Q M A S H ’ A L I

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бутун ёмонликлари учун тўфонга учраши акс эттирилади ва шу мазмундан келиб чиқиб
ёзувчи ҳикоя сарлавҳасини “Огоҳлантириш” деб номлади. Мунир Утайба ҳикоя бош
қаҳрамонининг монолог-мулоҳазалари орқали ўз фикрларини баён этгандек гўё:

“Тўфон бизларни чўктиради, шаҳримизни вайрон қилади. Дарҳақиқат, биз камолга

етишмадик, гўёки хатоларимизни тўғрилаш учун қоламиз. Эй, одамлар... Эй, одамлар... Эй
одамлар...У ўзини тубсиз жарликка ташлаб юборилгандек ҳис қилди.”

М.Утайба “Вишну маъбуди ўлди, у ҳам ўлади, даҳшатдан ўлади” жумласида фалсафий

фикрни мужассамлайди. Инсониятнинг тубанликлари натижасида ҳатто маъбуд ҳам даҳ-
шатга тушиб, унга ёрдам беришга қодир эмас. Ёзувчи бу ерда экзистенцилистик ғояни
илгари суради, яъни инсон ўз қилган ишига ўзи жавобгар, у ўз хатоларини ўзи тўғрилаши
керак, ўз ишига ўзи масъул ва жавобгардир. Ҳикоя ечими “Шаҳар аҳолисини жавоби йўқ
савол қийнайди: “Тўфон бўладими ёки...?!”” каби савол жумласи билан якунлаши орқали
масал жанридаги “қиссадан ҳисса чиқариш” каби инсониятни бўлажак тўфондан
огоҳлантириш, тўфоннинг бўлмаслиги учун инсон ўз қилган хатоларини вақтида тўғрилаши
лозимлиги ва огоҳ бўлиши кераклиги уқтирилади.

Хулоса қилиб айтганда, араб адабиётида замонавий муаммоларни бадиий аск эттиришда

жаҳон мифологияси, миллий афсона ва асотирларга, халқ ривоятларига, фантазияларга,
муқаддас диний китобларда келтирилган ривоятларга мурожаат қилиш кучайди. Мисрлик
ёзувчи Мунир Утейба “Огоҳлантириш” ҳикоясида ҳинд халқининг қадимий мифларидан
бугунги замон, бугунги инсон қиёфасини, ундаги ахлоқий, маънавий камчилик ва
иллатларни ёритишда истеъфода этди ва бу орқали инсониятни огоҳликка даъват этмоқда.

ҲИНДИСТОНДАГИ ЗАМОНАВИЙ АДАБИЙ

ТАНҚИДЧИЛИК ҲАҚИДА

भारत में आधुनिक साहित्यिक आलोचिा पर

DEVENDR CHAUBEY

Jawaharlal Nehru university, India

Аннотация. Мақолада бугунги кун ҳинд танқидчилиги ва унга бўлган муносабат ҳақида турли

адабиётшунос олимларнинг фикрлари қиёсий ўрганилган ва унинг энг асосий, давр муаммоларини тўғри
акс эттирган, тўғри баҳолаган адабиётшунослар номи келтирилган. Хусусан, охирги ўн йилликда ҳинд
адабиётида бўлган кўпгина ўзгаришлар, янги номлар, янги мавзу ва образлар ҳақида ҳам сўз юритилган.
Айниқса, ҳинд халқининг таниқли шахслари – Махатма Ганди, Амбедкар, Бхагат Синх, Рамасвами ва
шунга ўхшаш жамиятда туб бурилиш ясаган шахсларнинг фаолияти ҳинд халқининг ҳаёт ҳақидаги
тасаввурларини ҳам ўзгартириб, янгича дунёқарашли инсонларни яратгани ҳақида сўз юритган. Бу
ижтимоий-сиёсий ўзгаришларга шу давр адабиётшунослари – Намвар Синх, Вишванатх Трипатхи,
Менежр Пандей, Шивкумар Мишра, Ражендра Ядава ва бошқалар ҳам ўз муносабатларини
билдирдилар ва давр адабиётшунослигининг янги саҳифасини очиб бердилар.

Мана шу адабиётшунослар фикрлари орқали бугунги Ҳиндистонни тушуниш мумкинлигига

ойдинлик киритилган.


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S H A R Q M A S H ’ A L I

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Таянч сўз ва иборалар: сюжет, жамият, адабиётшунос, мустақиллик, образ, адабий танқид,

дунёқараш, ижтимоий-сиёсий қарашлар, пероснаж, озодлик.

Аннотация. В статье сделана попытка сравнителное изучение мнений разных литерат-

уроведов-критиков о сегодняшней Индии и определены имена тех, кто объективно оценил
сегодняшнюю эпоху.

В статьи, высказаны мнения о появлении новых имен, новых сюжетов и образов в литера-

турном процессе данного периода. В частности, говорится о деятельности таких известных
личностей Индии как Махатма Ганди, Амбедкар, Бхагат Синх, Рамасвами и других, которые в
корне изменили, обновили представление индийского народа о жизни. В статье приводятся
взгляды таких видных литературоведов как Намвар Синх, Вишванатх Трипатхи, Менеджер
Пандей, Шивкумар Мишра, Раджендра Ядав и других к этим изменениям и показал нвые страницы
литературоведения ХХ века.

Автор через изучение взглядов литературоведов критиков дает понять о том, что из себя

представляет сегодняшняя Индия и его литература.

Опорные слова и выражения: сюжет, общество, литературовед, незивисимость, образ,

литературная критика, мировоззрение, общественно-политические взгляды, пероснаж, свобода.

Abstract. The article attempts to make a comparative study of the opinions of various literary critics

about today's India and identifies the names of those who objectively assessed the present era. Through the
study of literary critics, the author makes it clear what today's India is.

In particular, opinions were expressed about the appearance of new names, new plots and images in

the literary process of this period. In particular, it speaks about the activities of such famous personalities
of India as Mahatma Gandhi, Ambedkar, Bhagat Sinh, Ramaswami and others, who radically changed,
updated the Indian people's perception of life. The article presents the views of such prominent literary
critics as Namwar Sinh, Vishwanath Tripathi, Manager Pandey, Shivkumar Mishra, Rajendra Yadav and
others to these changes and showed the new pages of literary criticism of the twentieth century.

The author, through studying the views of literary critics, makes it clear what today's India and its

literature are.

Keywords and expressions: plot, society, literary critic, independence, image, literary criticism,

worldview, socio-political views, perosnage, freedom.

ख्सारः

यह

लेख

समकालीन

हहिंदी

आलोचना

और

साहहत्य

की

वैचाररक

सिंरचना

के

बहाने

भारत

देश

और

दुहनया

को

समझने

का

एक

प्रयास

मात्र

है।

पर

,

यहािं

हम

इसका

दावा

नहीं

करते

;

पर

,

इस

छोटी

सी

पहल

और

हहिंदी

के

एक

बड़े

आलोचक

मैनेजर

पाण्डेय

के

आलोचना

कमम

के

हवश्लेषण

के

जररये

उन

कुछ

सिंदभों

को

समझने

की

कोहशश

यहाॅ

की

गयी

है

हजनसे

साहहत्य

की

दुहनया

का

हवस्तार

होता

है

एविं

वह

हकसी

देश

के

जातीय

सिंदभों

के

करीब

पहुचती

है।

,

हपछले

कुछ

दशकों

से

हहिंदी

साहहत्य

और

हवचारधारा

की

दुहनया

में

अनेक

तरह

के

पररवतमन

आये

हैं।

उन

पररवतमनों

में

सवामहधक

महत्वपूणम

है

,

रामहवलास

शमाम

के

जाने

बाद

प्रगहतशील

हचिंतन

एविं

हवचारकों

में

आया

एक

नये

प्रकार

का

हबखराव

हजसने

1890

के

बाद

की

दुहनया

और

जीवन

को

समझने

का

एक

ऐहतहाहसक

एविं

वगीय

आधार

हदया

था

तथा

हजसका

गहरा

प्रभाव

पूरी

दुहनया

सहहत

भारत

पर

भी

पड़ा।

1918

के

बाद

हजस

प्रकार

महात्मा

गाॅ धी

भारतीय

राजनीहत

और

सामाहजक

जीवन

में

हस्तक्षेप

करते

हैं

एविं

बाद

में

अिंबेडकर

,

भगत

हसिंह

,

वी

रामास्वामी

नायकन

पेररयार

,

राममनोहर

लोहहया

आहद

भारत

के

सामाहजक

-

राजनीहतक

जीवन

में

रहे

पररवतमनों

को

समझने

एविं

उसे

गहतशील

बनाने

का

प्रयास

करते

हैं

,

उससे

साहहत्य

और

हवचारधारा

की

दुहनया

भी

प्रभाहवत

होती

है।

ये

सारे

हवचारक

भारत

और

यहािं

के

समाज

को

समझने

की

कोंहशश

करते

हैं

,

बन

रही

नयी

दुहनया

के

समानािंतर

देश

के

मानहसक

भूगोल

में

रहे

बदलाव

को

एक

रचनानात्मक

हदशा

देने

की

कोहशश

करते

हैं

तथा

भारतीय

परिंपराएिं

,

वणम

,

जाहत

,

सिंप्रदायवाद

,

हपतृसत्ता

,

सामाहजक

हहिंसा

आहद

उन

कारकों

को


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S H A R Q M A S H ’ A L I

22

सामूहहक

हचिंतन

के

केंद्र

में

लाते

हिंॅै

हजन्हें

समझे

हबना

भारत

देश

को

समझना

मुहककल

है।

साहहत्य

में

रामहवलास

शमाम

,

नामवर

हसिंह

,

हवश्वनाथ

हत्रपाठी

,

मैनेजर

पाण्डेय

,

हशवकुमार

हमश्र

,

राजेंद्र

यादव

,

रमेश

कुिंतल

मेघ

,

रहवभूषण

,

प्रदीप

सक्सेना

,

धममवीर

,

हवजय

कुमार

आहद

जैसे

पुराने

एविं

समकालीन

आलोचक

इन

सवालों

से

टकराते

हैं

,

सिंवाद

करते

हैं

,

उसके

हवध्विंस

अथवा

हनमामणकारी

सिंरचनाओिं

का

आलोचनात्मक

हवश्लेषण

करते

हैं

;

परिंतु

मैनेजर

पाण्डेय

अपने

लेखन

में

इन

सवालों

को

हजस

बारीकी

के

साथ

भरतीय

हचिंतन

की

परिंपरा

एविं

आधुहनक

हवचारधाराओिं

से

जोड़ते

हुए

एक

समानािंतर

रेखा

खड़ी

करते

हुए

साहहत्य

के

सामाहजक

सिंदभों

एविं

सिंरचनाओिं

का

सैद्ािंहतकीकरण

करते

है

,

वह

उन्हें

समकालीन

आलोचना

एविं

हवचार

के

केंद्र

में

अलग

खड़ा

करता

है।

1982

में

कृष्ण

कथा

की

परिंपरा

और

सूरदास

का

काव्य

, 1993

में

भहि

आिंदोलन

और

सूरदास

का

काव्य

,

आहद

मौहलक

पुस्तकों

के

साथ

ही

अनूहदत

,

सिंपाहदत

पुस्तकों

में

-

2005

में

देश

की

बात

, 2009

में

सिंपहत्तशास्त्र

,

2009

में

माधवराव

सप्रेः

प्रहतहनहध

सिंकलन

, 2012

में

देवनारायण

हिवेदी

की

देश

की

बात

, 2012

में

सूर

सिंचहयता

,

2014

में

पराधीनों

की

हवजययात्रा

, 2015

में

लोकगीतों

और

गीतों

में

1857, 2016

में

मुगल

बादशाहों

की

हहिंदी

कहवता

आहद

हकताबों

में

उस

समाज

और

देश

को

समझने

की

कोहशश

करते

है।

यहािं

ये

आलोचक

साहहत्य

और

हवचारधारा

की

दुहनया

में

के

सहारे

औपहनवेहशक

और

साम्राज्यवादी

ताकतों

से

टकराते

एविं

सिंवाद

करते

हुए

स्वाधीनता

के

बाद

के

जनसमाज

के

सरोकारों

को

समझने

की

कोहशश

करते

है

तथा

उसे

आलोचना

एविं

हवचार

का

हहस्सा

बनाते

हुए

रामचिंद्र

शुक्ल

,

हजारीप्रसाद

हिवेदी

और

रामहवलास

शमाम

की

तरह

हहिंदी

समाज

के

गौरव

को

भारतीय

समाज

एविं

हचिंतन

का

गौरव

बनाना

चाहता

है।

इसके

हलए

वह

भारतीय

और

पाश्चात्य

हवचारधाराओिं

से

मुठभेड़

करते

हैं

,

आचायम

रामचिंद्र

शुक्ल

की

तरह

उनके

अिंदर

मौजूद

देशीय

तत्त्वों

को

वृहत्तर

सामाहजक

समुदायों

से

जोड़ते

हुए

हहिंदी

समाज

के

ज्ञान

और

उसके

अथम

का

हवस्तार

करते

है

;

आचायम

हजारीप्रसाद

हिवेदी

की

तरह

शोहषत

-

विंहचत

-

उपेहक्षत

जनसमाज

के

अिंतममन

का

सामाजीकरण

करते

हुए

उसे

स्वाधीन

एविं

नये

भारत

के

हवकास

का

प्रहतभागी

बनाना

चाहते

है

एविं

रामहवलास

शमाम

की

तरह

माक्र्सवाद

के

सिंदभों

को

हहिंदी

की

जातीय

अहस्मताओिं

से

जोड़ते

हुए

उसे

प्रगहतशील

भारत

के

वैकहपपक

इहतहास

के

रूप

में

खड़ा

करते

है

;

जहाॅ

सभी

के

हलए

समान

और

ठीक

-

ठीक

जगह

हमल

सकें।

आहखर

,

ये

लेखक

हहिंदी

की

दुहनया

में

ऐसा

क्या

करते

है

जो

उन्हें

उनके

समानधमी

भारतीय

आलोचकों

से

अलग

खड़ा

कर

देता

है

एविं

उनका

उपलेख

हहिंदी

की

दुहनया

में

एक

साहसी

एविं

हववेकशील

आलोचक

के

रूप

होने

लगती

हैॅै

?

हहिंदी

आलोचना

में

उनकी

शुरूआत

साहहत्य

के

मूपयािंकन

की

ऐहतहाहसक

दृहि

यानी

हक

माक्र्सवाद

से

होती

है

तथा

साहहत्य

के

समाजशास्त्र

पर

बात

करते

हुए

वे

आलोचना

की

सामाहजकता

की

बातें

करने

लगते

है।

यहाॅ

,

वे

साहहहत्यक

हसद्ािंतों

के

साथ

सिंवाद

करते

है

,

उनकी

व्याख्या

करते

है

और

हहिंदी

साहहत्य

को

एक

नया

सैद्ािंहतक

आधार

देते

है।

प्रहसद्

हवचारक

एडवडम

सईद

ने

अपने

व्याख्यान

के

दौरान

एक

विव्य

हदया

था

हजसका

उपलेख

बार

-

बार

उनके

प्रशसिंक

करते

है

हक

’’

आलोचना

का

कायम

है

,

सत्ता

के

सामने

सच

कहने

का

साहस।

’’

अगर

इस

कथन

को

हम

ध्यान

में

रखें

और

1964

में

नेहरू

के

हनधन

एविं

कम्युहनस्ट

पाटी

में

हुए

हवभाजन

के

बाद

देशीय

सिंदभम

में

उभरकर

आये

सबाल्र्टन

आिंदोलन

,

हकसान

आिंदोलन

,

नक्सलवाद

,

ग्रमीण

सिंघषम

,

समानािंतर

आिंदोलन

आहद

पर

हवचार

करें

तो

पता

चलता

है

हक

मैनेजर

पाण्डेय

हहिंदी

के

इकलौते

ऐसे

आलोचक

है

जो

साहस

के

साथ

जो

सच

है

,

उसे

कहते

है

;

हनत्यानिंद

हतवारी

,

हवश्वनाथ

हत्रपाठी

,

सत्यप्रकाश

हमश्र

,

मधुरेश

,

निंदहकशोर

नवल

,

रहवभूषण

आहद

जैसे

अपने

समकालीन

आलोचकों

के

साथ

भी

और

रामहवलास

शमाम

,

नगेंद्र

,

नामवर

हसिंह

,

हशवदान

हसिंह

चैहान

,

रमेश

कुिंतल

मेघ

,

खगेंद्र

ठाकुर

आहद

जैसे

वररष्ठ

आलोचकों

के

बीच

भी।

इस

सच

को

कहने

के

हलए

वे

सटीक

शब्दों

का

उपयोग

करते

है

तथा

हबना

हकसी

भय

के

जनता

एविं

साहहत्य

हचिंतकों

के

समक्ष

अपनी

बातें

रखते

हैं

ताहक

उनकी

आवाज

दूर

-

दूर

तक

जाए

और

साहहत्य

के

जररये

भी

देश

को

समझने

एविं

आत्मालोचन

की

प्रहिया

शुरू

हा

सकेॅे।

बौहद्क

ऐयासी

,

दलाल

बुहद्जीवी

,

भयावह

भ्ािंहतयािं

,

आहथमक

अराजकता

,

वैचाररक

हवभ्म

,

इतराता

पूॅ जीवाद

,

अथमहपशाच

,


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S H A R Q M A S H ’ A L I

23

बौहद्क

फैशन

आहद

अनेक

ऐसे

शब्द

हैं

जो

उनकी

आलोचना

में

अथम

का

हवस्तार

करते

हैं

एविं

समकालीन

यथाथम

से

मुठभेड़

करते

हुए

जीवन

के

ऐहतहाहसक

सच

को

सामने

रखते

हैं।

उदाहरण

के

हलए

,

जब

मैनेजर

पाण्डेय

कहते

है

-

’’

पहले

भारत

में

उपहनवेशवाद

के

साथ

आधुहनकतावाद

आया

था।

क्या

अब

भूमिंडलीकरण

के

दौर

में

नव

उपहनवेशवाद

के

साथ

उत्तर

आधुहनकतावाद

आयेगा

?

क्या

भारत

जैसे

देश

जो

पहश्चम

का

उपहनवेश

रह

चुके

हैं

,

वे

हवचारों

का

उपहनवेश

बनते

रहने

के

हलए

अहभशप्त

है

?

वह

भी

ऐसे

हवचारों

का

जो

अब

पहश्चम

में

मृत

धोहषत

हो

चुके

हैं

और

हजनका

खोखलापन

साहबत

हो

चुका

है

?’’;

तब

साफ

पता

चलता

है

हक

उनके

हदमाग

में

क्या

चल

रहा

है

!

वे

इस

बात

की

ओर

सिंकेत

भी

करते

है

हक

हजस

देश

की

जनता

का

एक

बड़ा

हहस्सा

आहदम

हस्थहतयों

में

जी

रहा

हैं

,

दूसरा

मध्ययुगीनता

का

हशकार

हिंॅै

और

तीसरा

आधुहनक

बनने

के

हलए

सिंघषम

कर

रहा

हैं

;

तब

उस

देश

में

उत्तर

आधुहनकता

मुट्ठी

भर

लोगों

के

हलए

बौहद्क

फैशन

के

अहतररि

और

कुछ

नहीं

होगा।

1998

में

लेखों

एविं

अनुवादों

की

प्रकाहशत

हकताब

सिंकट

के

बावजूद

में

वे

ये

बातें

तब

कहते

हैं

,

जब

लेखन

की

दुहनया

में

सिंरचनावाद

एविं

उत्तर

आधुहनकतावाद

पत्र

-

पहत्रकाओिं

के

हलए

लोकहप्रय

हवचार

बन

चुका

था

और

नयी

-

पुरानी

पीढ़ी

के

अनेक

लेखक

उत्तर

आधुहनकतावाद

के

सम्मोहन

के

हशकार

थे।

हहिंदी

के

प्रकाशकों

को

इस

हवचारधारा

में

एक

बड़ा

बाजार

हदखाई

दे

रहा

था।

कुछ

एक

हवचारकों

को

छोड़कर

हहिंदी

का

पूरा

वैचाररक

जगत

उत्तर

आधुहनकतावाद

पर

नयी

-

नयी

हकताबें

हलखकर

माक्र्सवाद

एविं

अन्य

हवचारों

के

अिंत

की

घोषणा

-

पर

-

घोषण

हकये

जा

रहा

था

,

तब

वह

साहस

के

साथ

जाॅ क

देररदा

की

हवकेंद्रीकरण

की

धारणा

(

क्म

.

बमदजमतपदह

)

,

भाषा

को

हचिंतन

का

केंद्र

बनाने

की

बात

,

हमशेल

फूको

की

ज्ञान

और

सत्ता

सिंबिंधी

धारणा

(

ज्ञदवूसमकहम

पे

चवूमत

)

,

जुहलया

हिस्तोवा

की

पाठ

का

अिंतवती

सिंबिंध

की

धारणा

(

प्दजमत

.

जमगजनिंसपजल

)

और

साहहत्य

को

रहस्यात्मकता

(

डी

-

मीस्टीहफकेशन

)

से

मुि

करने

की

धारणा

आहद

हवशेषताओिं

की

चचाम

करते

हुए

,

इस

कारण

हवरोध

करते

है

हक

पहश्चम

के

मृत

हवचारों

पर

हहिंदी

के

आलोचक

आहखर

क्यों

एक

नयी

इमारत

खड़ी

करना

चाहते

हैं

?

आहखर

क्यों

यह

देश

पहश्चम

का

उपहनवेश

बनते

रहने

के

हलए

अहभशप्त

है

जबहक

सिंरचनावाद

की

अनेक

धारणाएॅ

या

’’

देररदा

की

भाषा

सिंबिंधी

हचिंतन

केवल

बौद्ों

के

भाषा

सिंबिंधी

हचिंतन

से

बहुत

हमलता

-

जुलता

है

,

बहपक

स्विंय

देररदा

ने

नागाजुमन

के

भाषा

सिंबिंधी

हचिंतन

पर

ध्यान

हदया

है

और

उसका

उपयोग

हकया

है।

...

पुराने

साहहत्यशास्त्र

में

ध्वहन

को

बहुत

महत्व

हदया

गया

है।

ध्वहन

की

पूरी

प्रहिया

है

और

आनिंदवद्मन

तथा

अहभनवगुप्त

िारा

उसकी

व्याख्या

का

जाॅ क

देररदा

के

भाषा

हचिंतन

से

बहुत

दूर

तक

मेल

हदखायी

देता

है।

’’ (

देखें

,

उत्तर

सिंरचनावाद

को

क्यों

और

कैसे

पढ़ें

;

फ्रिंसीसी

हचिंतन

पर

डाॅ

.

मैनेजर

पाण्डेय

से

हेमिंत

जोशी

और

देवेंद्र

चैबे

की

बातचीत।

पल

प्रहतपल

,

अप्रैल

-

हसतिंबर

1992)

के

सिंदभम

प्राचीन

भारत

में

हुए

भाषा

सिंबिंधी

हचिंतन

से

प्रभाहवत

है।

अथामत

,

अतीत

में

यूरोप

ने

जो

ज्ञान

भारत

से

हलया

,

उसे

आधुहनक

भारत

क्यों

नये

हचिंतन

के

रूप

में

स्वीकार

करें

?

और

अगर

स्वीकार

करें

भी

तो

उसकी

समीक्षा

क्यों

करें

ताहक

जो

ठीक

-

ठाक

है

,

वही

हमारे

हचिंतन

का

हहस्सा

बने

;

जैसा

हक

माक्र्सवाद

आहद

हवचारों

को

हशवदान

हसिंह

चैहान

,

रामहवलास

शमाम

,

नामवर

हसिंह

,

हशवकुमार

हमश्र

आहद

हवचारकों

सहहत

मैनेजर

पाण्डेय

ने

भी

स्वीकार

हकया

तथा

उसके

सहारे

हहिंदी

के

प्रगहतशील

साहहत्य

के

मूपयािंकन

का

प्रयास

हकया।

लेहकन

मुहककल

यह

है

हक

हहिंदी

के

अनेक

आलोचक

इस

प्रकार

के

पाश्चात्य

हवचारों

को

हबना

समीक्ष

के

अपनाने

के

हलए

तैयार

बैठे

है।

इस

िम

में

वे

अपने

एक

हनबिंध

आलोचना

की

सामाहजकता

में

सुधीश

पचैरी

के

एक

लेख

-

कबीर

,

धममवीर

और

फूको

की

जीहनयोलाॅ जी

की

हनम्न

पिंहियों

को

उद्ृत

करते

हुए

‘‘

इिंटरटेक्स्चुएहलहट

के

जमाने

में

हसफम

मूखम

ही

दहलत

को

कबीर

में

ढ ूढ़

सकते

हैं।

जीहनयोलोहजकल

हडकिंस्रक्शन

की

यही

खास

बात

है

हक

दहलत

कबीर

की

हकताब

में

भले

हो

,

लेहकन


background image

S H A R Q M A S H ’ A L I

24

जीहनयोलोजी

के

वतममानत्व

और

दहलतवाद

के

युद्

में

कबीर

एक

प्राथहमक

सािंस्कृहतक

टेक्स्ट

हो

सकते

है।

‘‘

हलखते

है

हक

‘‘

अभी

तो

मेरी

हचिंता

केवल

यह

है

हक

ऐसी

हहिंदी

में

हलखी

आलोचना

हकतनी

सामाहजक

होगी।

हहिंदी

आलोचना

की

भाषा

का

का

एक

और

रूप

वहािं

हदखाई

देता

है

जहािं

आलोचना

को

रचना

बनाने

की

कोहशश

में

व्यहि

-

वैहचत्र्यवाद

से

होड़

करता

उहि

-

वैहचत्र्यवाद

आलोचना

की

भाषा

को

सिंध्या

-

भाषा

बना

देता

है।

‘‘

यही

काम

एक

जमाने

में

आचायम

रामचिंद्र

शुक्ल

ने

भी

हहिंदी

आलोचना

में

कलावद

,

अहभव्यिंजनावाद

,

व्यहि

-

वैहचत्र्यवाद

,

प्रभावहभव्यिंजक

समीक्षा

,

फ्रायडवादी

आलोचना

आहद

पाश्चात्य

हवचारों

का

हवरोध

करते

हुए

हकया

था

हजसका

हवस्तार

से

उपलेख

वे

1929

में

प्रकाहशत

हहिंदी

साहहत्य

का

इहतहास

में

करते

है

तथा

बाद

में

हचिंतामहण

के

सिंग्रहहत

हनबिंधों

में।

महत्वपूणम

बात

है

हक

आचायम

शुक्ल

1917

की

रूसी

िािंहत

या

माक्र्सवाद

का

हवरोध

नहीं

करते

है

और

शायद

यह

भी

एक

कारण

है

हक

हहिंदी

के

माक्र्सवादी

आलोचकों

में

रामहवलास

शमाम

,

नामवर

हसिंह

,

हशवकुमार

हमश्र

आहद

उनका

नाम

आदर

से

लेते

हिंॅै

तथा

उनकी

आलोचना

पद्हत

को

आदशम

मानते

हैं।

एक

आलोचक

और

साहहत्य

हवचारक

की

यह

भूहमका

भी

होती

है

हक

वह

अपने

समय

के

अनावकयक

वैचाररक

बाढ़

और

शुक्ल

जी

के

शब्दों

में

रहे

कूड़़

-

कड़कट

रोकने

के

हलए

डटकर

खड़ा

हो

जाए

तथा

स्वीकारने

के

पहले

उसकी

कड़ी

परीक्षा

करें।

इतना

ही

नहीं

,

साकारात्मक

हवचारधाराओिं

का

समथमन

करते

हुए

साहस

के

साथ

अनावकयक

हवचारों

का

हवरोध

भी

करें

और

उसे

हहिंदी

में

आने

से

रोके

ताहक

शुक्ल

जी

के

शब्दों

में

‘‘

हमारे

साहहत्य

के

स्वतिंत्र

और

व्यापक

हवकास

में

सहायता

पहुॅ चे

‘‘

(

हहिंदी

साहहत्य

का

इहतहास

:

रामचिंद्र

शुक्ल

, 1985,

पृष्ठ

391)

कहा

जाता

है

हक

अपने

अनुशासन

को

एक

ऊ चाई

प्रदान

करने

की

यह

भी

एक

पद्हत

होती

है

हक

आप

पूरी

आलोचनात्मक

चेतना

के

साथ

साहहत्य

के

सामाहजक

पक्ष

को

ध्यान

में

रखते

हुए

आलोचना

में

साहस

के

साथ

जो

सच

है

,

उसे

सच

कहें

और

जो

झूठ

है

,

उसेॅे

झूठ।

तभी

सिंबिंहधत

साहहत्य

और

हवचार

की

दुहनया

का

हवस्तार

होता

है

एविं

रचनात्मक

सिंरचना

की

गाॅ ठें

खुलती

हैं।

नयी

आलोचना

की

जमीन

को

तैयार

करने

के

हलए

इस

प्रकार

की

आलोचनात्मक

पहल

करना

जरूरी

भी

हैॅै।

यहाॅ

,

साहहत्य

के

सामाहजक

पक्ष

का

अथम

यह

भी

है

हक

व्यवस्था

िारा

वृहत्तर

समाज

पर

हकये

जा

रहे

प्रहारों

का

ठीक

-

ठीक

आकलन

करना

ताहक

हनन्यानवे

प्रहतशत

समाज

िारा

अपनी

जरूरतों

के

हलये

हकये

जा

रहे

सिंघषम

को

एक

सही

हदशा

हमल

सके।

यह

आलोचना

और

हवचार

का

वही

पक्ष

है

हजसे

हाल

के

वषों

में

सोहवयत

सिंघ

के

हवघटन

के

बाद

आॅ क्युपाई

वाल

स्रीट

जैसे

आिंदोलन

के

दौरान

लोगों

ने

देखा

हक

समाज

,

नव

उदारवादी

पूॅ जी

से

पीहड़त

हैं

और

मैनेजर

पाण्डेय

के

शब्दों

में

’’

पररवतमन

की

बेचैनी

उसके

मन

में

है

,

इसहलए

एक

प्रहतशत

बनाम

हनन्यानवे

प्रहतशत

वाल

-

स्रीट

का

नारा

था।

एक

प्रहतशत

लोगों

ने

दुहनया

की

सारी

पूॅ जी

पर

कब्जा

कर

रखा

है

और

बाकी

लोग

मर

रहे

है

‘’

अथामत

,

वे

मानते

है

हक

लेखकों

को

अपने

साहहत्य

में

ऐसे

सवालों

से

मुठभेड़

करना

चाहहए

जो

सामाहजक

हवकास

एविं

देशीय

सिंरचनाओिं

को

समझने

के

हलए

जरूरी

हैं।

और

आलोचकों

को

भी

साहस

के

साथ

सत्ता

के

सामने

इस

प्रकार

के

सच

कहने

अथवा

प्रस्तुत

करने

का

समानािंतर

हवकपप

रखना

चाहहए

;

तभी

,

सही

मायने

में

वे

साहहत्य

और

आलोचना

की

दुहनया

का

नेतृत्व

कर

पायेंगे।

समकालीन

आलोचकों

में

मैनेजर

पाण्डेय

यह

काम

साहस

के

साथ

करते

है

और

इस

सिंदभम

में

अपने

सहधमी

आलोचकों

के

साथ

सिंवाद

एविं

मुठभेड़

करने

के

हलए

हमेशा

तैयार

रहते

है।

इस

प्रसिंग

में

वे

कई

बार

उन

आलोचकों

पर

सवाल

भी

खड़ा

करते

हिंॅै

जो

आलोचना

में

पक्षधरता

और

पक्षपात

में

फकम

नहीं

करते

है

और

अपनी

सुहवधा

के

अनुसार

हसद्ािंत

बनाते

रहते

हैं।

मैनेजर

पाण्डेय

के

शब्दों

में

ऐसे

स्वधन्यमान्

आलोचक

कभी

उत्साह

में

लेखक

अथवा

रचना

की

अहतरिंहजत

प्रशिंसा

कर

देते

है

तो

कभी

रिरिंहजत

हनिंदा।


background image

S H A R Q M A S H ’ A L I

25

दरअसल

,

साहहत्य

और

हवचारधारा

की

दुहनया

में

ठीक

-

ठीक

मैनेजर

पाण्डेय

का

आगमन

तब

होता

है

,

जब

नेहरू

के

हनधन

के

बाद

जहाॅ

एक

तरफ

ग्रामीण

भारत

के

आमजन

जमींदारी

एविं

सामिंती

व्यवस्था

के

हखलाफ

तनकर

खड़े

हो

रहे

थे

,

वहाॅ

दूसरी

तरफ

शहरी

भारत

सन्

70

के

बाद

हवत्तीय

एविं

अन्य

क्षेत्रों

में

राष्रीयकरण

के

बाद

एक

वैहश्वक

ताकत

बनकर

उभरने

के

सिंकेत

दे

रहा

था।

साहहत्य

,

हसनेमा

,

कला

और

हवचारधारा

की

दुहनया

में

समानािंतर

आिंदोलन

अपनी

धीमी

उपहस्थहत

दजम

कर

रहा

था।

तभी

आलोचना

के

जनवरी

-

माचम

1974

के

एक

अिंक

में

प्रहसद्

आलोचक

नामवर

हसिंह

का

एक

लेख

प्रकाहशत

होता

है

-

हहिंदी

साहहत्य

के

पच्चीस

वषम।

इस

लेख

में

नामवर

हसिंह

आजादी

के

बाद

के

हहिंदी

साहहत्य

की

उपलहब्धयों

का

बखान

करते

हुए

हलखते

है

हक

‘‘

स्वाधीनता

के

प्रारिंहभक

तीन

-

चार

वषों

के

सिंिाहन्त

काल

के

बाद

देश

में

सािंस्कृहतक

नवजागरण

की

एक

लहर

आयी

हजसका

प्रभाव

साहहत्य

में

एक

प्रकार

के

नव

-

रोमािंहटक

उत्थान

के

रूप

में

प्रकट

हुआ।

‘‘

यह

लेख

काफी

प्रभावशाली

है

तथा

इसमें

नामवर

हसिंह

स्वाधीनता

के

बाद

के

हहिंदी

साहहत्य

में

उभरकर

आई

नयी

रचनाशीलता

का

सममथन

करते

है

तथा

नयी

कहानी

,

नयी

कहवता

आहद

का

हवश्लेषण

करते

हुए

उस

दौर

के

साहहत्य

को

एक

बड़ी

उपलहब्ध

मानते

हैं।

यह

सही

भी

है।

कारण

,

नयी

कहानी

,

नयी

कहवता

तथा

उस

दौर

में

हलखे

गये

उपन्यास

एविं

नाटक

आजादी

के

बाद

के

हहिंदी

साहहत्य

को

एक

बड़ी

उपलहब्ध

प्रदान

करते

हैं।

मुहककल

तब

होती

है

,

जब

नामवर

हसिंह

बातचीत

के

िम

में

1964

के

बाद

के

अकहानी

,

अकहवता

और

1967

के

हकसान

आिंदोलनों

से

जुड़े

प्रहतरोध

,

सिंघषम

एविं

सिंघषम

में

मारे

गये

लोगों

एविं

उस

दौर

की

रचनात्मक

स्मृहतयों

कोॅे

हवस्मृत

कर

देते

हैं।

एक

प्रहतबद्

आलोचक

की

तरह

मैनेजर

पाण्डेय

नामवर

हसिंह

के

इस

आलोचनात्मक

मूपयािंकन

को

बहस

के

केंद्र

में

खड़ा

करते

है

तथा

नामवर

हसिंह

के

सािंस्क्ॅृहतक

नवजागरण

की

धारणा

का

हवरोध

करते

हुए

प्रहतरोध

की

इस

समानािंतर

धारा

को

इहतहास

लेखन

का

आधार

बनाने

की

वकालत

करते

है।

इतना

ही

नहीं

,

स्वातिंत्र्योतर

हहिंदी

साहहत्य

के

इहतहास

लेखन

की

समस्याओिं

पर

हवस्तार

से

चचाम

करते

हुए

स्वातिंत्र्योत्तर

हहिंदी

साहहत्य

के

इहतहास

लेखन

की

समस्याएिं

लेख

में

वे

नामवर

हसिंह

िारा

सािंस्कृहतक

नवजागरण

पर

चचाम

के

िम

में

छोड़

हदये

गये

सवालों

को

उठाते

है

तथा

कहते

है

हक

‘‘

हवचारणीय

यह

है

हक

इस

तथाकहथत

सािंस्कृहतक

नवजागरण

की

भूहम

क्या

है

?

इस

काल

-

खण्ड

में

देश

का

बिंटवारा

हुआ

,

अभूतपूवम

सािंप्रदाहयक

दिंगों

के

भीषण

हत्याकाण्ड

में

देश

डूब

गया

,

गाॅ धी

की

हत्या

हुई

,

प्रगहतशील

आिंदोलन

से

जुड़े

कलाकारों

,

साहहत्यकारों

,

पत्रकारों

,

रिंगकहममयों

,

पत्र

-

पहत्रकाओें

का

कठोर

दमन

हकया

गया

,

तेलिंॅागाना

के

हजारों

िािंहतकाररयों

की

हनममम

हत्या

हुई

,

राजनीहत

और

साहहत्य

में

िािंहतकारी

शहियों

का

हवघटन

और

हबखराव

हुआ

,

और

शोषक

वगम

की

सत्ता

िमशः

मजबूत

होती

गई।

’’ (

साहहत्य

और

इहतहास

दृहिः

मैनेजर

पाण्डेय

,

सिंस्करणः

2009,

पृष्ठ

221)

स्पितः

1947

के

बाद

के

तथाकहथत

सािंस्कृहतक

नवजागरण

पर

यह

एक

जहटल

सवाल

है

जो

हकसी

भी

आलोचक

के

सामने

मुहककल

पैदा

करेगा

;

परिंतु

,

मैनेजर

पाण्डेय

हजस

साहस

और

प्रहतबद्ता

के

साथ

इन

सवालों

को

उठाते

है

;

उसका

हजतना

गहरा

सिंबिंध

हहेदी

आलोचना

एविं

हवचार

की

दुहनया

के

साथ

है

,

उतना

ही

राष्र

की

उन

सामाहजक

अहस्मताओिं

के

साथ

भी

हैं

हजन्हें

गौण

मानकर

मुखधारा

की

दुहनया

हवस्मृत

कर

देती

है।

चाहे

वह

स्त्री

अहस्मता

का

सवाल

हो

या

दहलत

अहस्मता

का

अथवा

आहदवासी

अहस्मता

का

या

इन

अहस्मताओिं

के

परे

उन

शोहषत

एविं

विंहचत

अहस्मताओिं

का

हजनका

सिंबिंध

हकसी

भी

विंहचत

-

उपेहक्षत

समूह

या

समुदाय

अथवा

जाहत

होता

है।

आज

के

साहहत्य

का

गहरा

सिंबिंध

इन

अहस्मताओिं

के

साथ

है

हजसे

समझने

की

कोहशश

हपछली

सदी

के

आठवें

दशक

से

साहहत्य

के

अध्येता

लगातार

करते

रहे

हैं।

खास

बात

यह

है

हक

रामहवलास

शमाम

एविं

नामवर

हसिंह

जैसे

हहिंदी

के

दोनों

बड़े

आलोचक

हचिंतन

की

प्रहिया

में

1964

के

बाद

के

सिंदभों

एविं

उन

ऐहतहाहसक

पररघटनाओिं

को

आलोचना

का

हवषय

नहीं

बनाते

है

हजनपर

आज

90

के

बाद

का

साहहत्य

खड़ा

है।

चचाम


background image

S H A R Q M A S H ’ A L I

26

करते

भी

है

तो

अहस्मतावादी

या

हाहशये

के

समाज

के

साहहत्य

को

लेकर

वे

बहुत

साकारात्मक

नहीं

है।

जबहक

यह

सच

है

हक

इन

पररघटनाओिं

ने

सामिंतवाद

और

पूॅ जीवाद

के

गठजोड़

से

70

के

दशक

में

खेहतहर

मजदूरों

और

उपेहक्षत

-

विंहचत

समुदायों

को

ताकत

प्रदान

हकया

था

तथा

गाॅ धी

के

हकसान

आिंदोलन

से

परे

जाकर

कृहष

-

सिंघषम

को

दासता

की

बेहड़यों

से

मुि

हकया।

उसी

समय

जमींदारी

प्रथा

का

भी

अिंत

हुआ

तथा

भूहम

-

सुधार

की

प्रहिया

शुरू

कर

तत्कालीन

सरकार

ने

हपछड़े

समाज

को

बराबरी

के

सतह

पर

लाने

की

कोहशश

की।

फणीश्वरनाथ

रेणु

का

उपन्यास

परती

पररकथा

इसका

एक

बड़ा

उदाहरण

है

हजसकी

तारीफ

मैनेजर

पाण्डेय

हमेशा

करते

रहते

है।

बाबा

नागाजुमन

के

बलचनमा

में

जहाॅ

समस्या

की

जड़

में

जाने

की

कोहशश

है

,

वहाॅ

रेणु

के

उपन्यास

में

उसके

राजनीहतक

-

सामाहजक

समाधान

के

प्रयास।

यहाॅ

इस

बात

का

उपलेख

करना

जरूरी

है

हक

तत्कालीन

हहिंदी

आलोचना

की

मुख्यधारा

ने

उन

लेखकों

को

भी

हवस्मृत

कर

हदया

जो

इस

तरह

की

पररघटनाओिं

की

ऊपज

थे

तथा

हजससे

ग्रामीण

जीवन

की

सिंरचना

एविं

साहहत्य

तथा

शहरी

जीवन

की

मध्यवगीय

चेतना

में

बड़ा

पररवतमन

आया

था।

हहिंदी

में

धूहमल

,

राजकमल

चैधरी

,

कुमार

हवकल

,

जगदिंबा

प्रसाद

दीहक्षत

,

आलोक

घन्वा

,

गोरख

पाण्डेय

,

हवजेंद्र

अहनल

,

सिंजीव

,

अरूण

प्रकाश

,

हवजयकािंत

,

मनमोहन

,

रामकुमार

कृषक

,

सुरेश

कािंटक

,

कात्यायनी

आहद

जैसे

लेखक

या

बाद

के

दहलत

आहद

आिंदोलनों

से

जुड़े

ओमप्रकाश

वापमीहक

,

धममवीर

,

मोहनदास

नैहमषराय

,

किंवल

भारती

,

राजकुमार

पासी

आहद

इसी

प्रकार

की

पररघटनाओिं

की

ऊपज

थे

हजन्हें

आलोचना

की

मुख्यधारा

ने

कभी

ठीक

से

चचाम

का

हवषय

ही

नहीं

बनाया

और

कभी

नाम

हलया

भी

तो

ऐसे

हक

उनके

होने

से

भी

हहिंदी

का

सोलहों

आना

वैसा

ही

रहता

,

जैसा

हक

पहले

था।

स्पितः

,

मैनेजर

पाण्डेय

की

असहमहत

नामवर

हसिंह

की

उन

धारणाओिं

से

नहीं

है

हजनका

सिंबिंध

नयी

कहानी

,

नयी

कहवता

,

उपन्यास

,

नाटक

या

आिंचहलकता

से

है।

वे

इस

दौर

की

रचनाशीलता

का

समथमन

करते

है।बहपक

उन्हें

हदक्कत

तब

होती

है

जब

नामवर

हसिंह

उस

दौर

में

रहचत

साहहत्य

और

उसके

इहतहास

को

सािंस्कृहतक

नवजागरण

से

जोड़ते

है

और

रचना

की

उस

धारणा

पर

सवाल

खड़ा

करते

है

हजसे

वे

नव

-

रोमािंहटक

कहकर

सिंबोहधत

करते

है।

यद्यहप

,

नामवर

हसिंह

1947

के

बाद

के

साहहत्य

को

जब

नव

-

रोमािंहटक

कहकर

सिंबोहधत

करते

है

,

तब

उनके

ध्यान

में

1947

के

बाद

की

कहवता

में

उभरकर

आयी

रागात्मकता

एविं

गीतात्मकता

का

होना

एविं

कहानी

तथा

उपन्यास

में

उहदत

आिंचहलकता

की

धारा

का

केंद्र

में

आने

से

है

जो

जीवन

में

आये

एक

नये

प्रकार

के

सम्मोहन

-

बोध

का

हनमामण

करती

हैं।

परिंतु

,

मैनेजार

पाण्डेय

को

लगता

है

हक

इस

प्रहिया

में

उस

दौर

में

हलखा

गया

वह

यथाथमवादी

साहहत्य

मूपयािंकन

से

बाहर

हो

जाता

है

हजसकी

बुहनयाद

समकालीन

समय

के

सवालों

से

हैं

तथा

जो

समय

के

यथाथम

से

सीधे

मुठभेड़

करती

हैं

एविं

हजनमें

वृहत्तर

समाज

की

गहरी

पीड़ा

और

सिंघषम

दजम

हैं।

सबसे

बड़ी

बात

यह

है

हक

इस

दृहि

से

मूपयािंकन

की

प्रहिया

में

बहुत

सारे

लेखक

साहहत्य

एविं

हवचार

की

दुहनया

से

बाहर

हो

जाते

हैं।

उन्हें

तो

हहिंदी

आलोचना

में

जगह

हमलती

है

और

ही

साहहत्य

के

इहतहास

में।

मैनेजर

पाण्डेय

ऐसे

लेखकों

की

हचिंता

करते

हैं

,

उनके

अिंदर

मौजूद

समकालीन

समय

के

सवालों

को

गहरी

सिंवेदनशीलता

के

साथ

पकड़ने

की

कोहशश

करते

है

तथा

उनकी

हचिंताओिं

को

मुख्यधारा

के

साहहत्य

हचिंतन

का

हहस्सा

बनाते

है।

स्त्री

,

दहलत

,

आहदवासी

साहहत्य

पर

बात

करना

और

उन्हें

समकालीन

हवचार

का

हहस्सा

बनाना

उनकी

इसी

सोच

का

हहस्सा

है।

इसी

प्रकार

,

वे

हजस

गहरी

सिंवेदना

के

साथ

वे

मुिछिंद

के

पहले

कहव

महेश

नारायण

आहद

जैसे

हवस्मृत

रचनाकार

या

महादेवी

वमाम

के

छायावादी

व्यहिव

की

बजाय

उनकी

श्रृिंखला

की

कहड़याॅ

आहद

जैसे

गद्य

लेखन

को

स्त्री

मुहि

आिंदोलन

की

प्रहतहनहध

रचना

मान

;

गिंभीर

एविं

प्रहतबद्

लेखन

का

हहस्सा

मानते

हुऐ

हवचार

प्रहिया

का

हहस्सा

बनाते

है

वह

उनके

आलोचनात्मक

हववेक

का

एक

बड़ा

उदाहरण

है।

यद्यहप

उनसे

भी

बहुत

सारी

चीजें

छूट

जाती

है

;

जैसे

1890

से

लेकर

सन्

1930-35

के

बीच

का

राधामोहन

गोकुल

का

लेखन

आहद।

यद्यहप

महेश

नारायण

,

राधामोहन

गोकुल

,

देवनारायण

हिवेदी

आहद

कई

लेखकों

की

चचाम

आचायम

रामचिंद्र

शुक्ल

भी

नहीं

करते

है

और

उसपर

दुभामग्य

यह

हक

उनका

देखा

-

देखी

या

यूॅ

कहें

हक

साहहत्य

के

इहतहास

लेखन

के

प्रथहमक

स्रोतों

के

हलए

बाद

के

अहधकािंश

इहतहासकारों

िारा

आचायम

रामचिंद्र

शुक्ल

पर

हनभमरता

के

कारण

इस

प्रकार

के


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S H A R Q M A S H ’ A L I

27

अनेक

लेखक

इहतहास

में

आने

से

रह

जोते

है।

पर

,

देवनारायण

हिवेदी

की

देश

की

बात

जैसे

लेखक

और

उनकी

पुस्तकों

की

चचाम

कर

मैनेजर

पाण्डेय

इस

कमी

को

पूरा

करते

है।

ज्ञातव्य

हो

हक

देवनरायण

हिवेदी

उन

लेखकों

में

से

रहे

है

जो

महावीर

प्रसाद

हिवेदी

,

सखाराम

गणेश

देउस्कर

आहद

की

तरह

1890

के

बाद

के

हिहटशकालीन

भारत

के

आहथमक

-

सामाहजक

मुद्दों

पर

हहिंदी

साहहत्य

के

इहतहास

के

हिवेदी

-

काल

(

1900-1918)

में

हकताबें

हलखते

हैं

और

सरकार

के

कोप

का

हशकार

भी

होते

है।।

इस

तरह

के

साहहत्य

का

मूपयािंकन

करते

हुए

मैनेजर

पाण्डेय

उसके

सैद्ािंहतकीकरण

का

प्रयास

करते

है

तथा

उसे

वृहत्तर

सामाहजक

समूहों

का

हहस्सा

मानते

हुए

साहहत्य

के

केंद्र

में

खड़ा

करते

है।

वास्तव

में

,

साहहत्य

और

हवचारधारा

की

दुहनया

नये

हवचारों

से

हजतना

आतिंहकत

होती

है

,

उतना

ही

समाज

की

चुप्पी

से

भी।

सिंकट

का

समय

ऐसा

ही

होता

है

,

जब

कई

बार

लेखक

अथवा

आलोचक

उन

सवालों

पर

बातचीत

करने

से

कतराते

हैं

,

जो

सत्ता

के

हलए

असहज

होते

हिंॅै।

लेहकन

यह

वही

दौर

होता

है

,

जब

लेखक

अपने

समय

के

अच्छे

-

बुरे

सवालों

से

टकराते

हुए

दुहनया

को

समझने

के

नये

दशमन

हवकहसत

करता

है।

भारतीय

हचिंतन

और

दशमन

में

ऐसे

अनेक

उदाहरण

मौजूद

है

जहाॅ

सिंकट

के

समय

महात्मा

बुद्

जैसे

हवचारकों

ने

जीवन

और

जगत

को

समझने

के

हलए

दुहनया

को

एक

नया

मागम

हदया।

आज

के

समय

के

सवालों

से

टकराते

हुए

जब

ये

आलोचक

गाॅ धी

,

अिंबेडकर

और

माक्र्स

की

चचाम

करते

है

,

तब

वे

कहीं

-

-

कहीं

समकालीन

हवमशम

के

बहाने

समाज

के

सच

को

ही

समझना

चाहते

है।

उनका

पूरा

वैचाररक

लेखन

एक

दाशमहनक

की

तरह

अपने

समय

के

सवालों

से

सिंवाद

करते

हुए

इस

भारत

देश

और

दुहनया

को

ही

समझने

का

प्रयास

है।

शायद

,

आलोचना

एविं

हवचारधारा

की

दुहनया

ऐसे

ही

काम

करती

है

;

समाज

तो

अपनी

गहत

से

चलता

ही

रहता

है।

देवेंद्र

चैबे

चहचमत

लेखक

और

हशक्षाहवद।

कहानी

,

आलोचना

,

इहतहास

,

सिंपादन

,

कहवता

,

अनुवाद

कायम

आहद

से

सिंबिंहधत

करीब

पिंद्रह

पुस्तकें

प्रकाहशत।

कहानी

-

सिंग्रह

कुछ

समय

बाद

और

आलोचना

-

इहतहास

की

प्रकाहशत

पुस्तकों

में

समकालीन

कहानी

का

समाजशास्त्र

,

साहहत्य

का

नया

सौंदयमशास्त्र

, 1857

ॅःभारत

का

पहला

मुहि

सिंघषम

,

आधुहनक

साहहत्य

में

दहलत

हवमशम

,

आलोचना

का

जनतिंत्र

,

हाहशये

का

वृतािंत्त

,

आधुहनक

भारत

के

इहतहास

लेखन

के

कुछ

साहहहत्यक

स्रोत

आहद

काफी

चहचमत।

लेखक

और

हवजीहटिंग

प्रोफेसर

के

रूप

में

जापान

,

माॅ ररशस

,

उज़्बेहकस्तान

आहद

देशों

की

यात्राएॅ ।

2000

में

भारत

सरकार

के

सिंस्कृहत

मिंत्रालय

से

लेखकों

को

राष्रीय

फेलोहशप

प्राप्त

देवेंद्र

चैबे

हफलहाल

,

भारतीय

भाषा

केंद्र

;

भाषा

,

साहहत्य

और

सिंस्कृहत

अध्ययन

सिंस्थान

;

जवाहरलाल

नेहरू

हवश्वहवद्यालय

,

नयी

हदपली

(

भारत

)

में

प्रोफेसर

है।

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